
ब्रज-धाम

ब्रज शब्द का व्युत्पत्तिगत अर्थ है :-
- व्रज:- अर्थात 'व' से ब्रह्म और शेष रह गया 'रज' यानि यहाँ ब्रह्म ही रज के रुप में व्याप्त हैं ।
- स्कन्दपुराण में व्रज शब्द की सुन्दर परिभाषा दी गयी है :- 'गुणातीतं परं ब्रह्म व्यापकं ब्रज उच्यते । सदानन्दं परं ज्योति मुक्तानां पदव्ययम् ॥' :- सत्त्व, रज, तम, इन तीनों गुणों से अतीत जो परब्रह्म हैं, वह विश्व के कण-कण में सर्वत्र व्याप्त हैं । इसलिए उसे ही ब्रज कहते हैं । यह सच्चिदानन्द स्वरुप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है । जीवन्मुक्त परम रसिक ही इसमें निवास करते हैं ।
- 'ब्रजति गच्छति इति ब्रजः' - जो चलता फिरता है वही ब्रज है ।
- 'ब्रजन्ति गावः यस्मिन्नित्ति ब्रजः' - अर्थात जहाँ गो, गोपाल, गोप और गोपियाँ विचरण करती हैं, उसे ब्रज कहते हैं । नन्दबाबा अपनी गऊओं, बछड़ों, परिवार और परिकरों के साथ जिन-जिन स्थानों पर निवास करते थे, वह स्थान 'ब्रज' कहलाता है ।

योगेश्वर कृष्ण और जगत जननी राधिका जी की जनम स्थली और क्रीड़ा स्थली को ही लोक में ब्रजभूमि की संज्ञा दी गई है, इसलिए यहाँ केवल प्रेम ही प्रेम बिखरा पड़ा है और उस प्रेम-समुद्र में उन्नत उज्जवल प्रणयरस सदा उच्छ्वलित होता रहता है । ऐसा माना जाता है कि राधा-कृष्ण ब्रज में आज भी नित्य विराजते हैं और यहाँ पर उनकी परम रसमयी रास एवं अन्यान्य क्रीड़ाएँ- नित्यलीला सदैव गतिमान रहतीं हैं । अतएव, उनके दर्शन के निमित्त भारत के समस्त तीर्थ यहाँ विराजमान हैं। यही कारण है कि इस भूमि के दर्शन करने वाले को कोटि-कोटि तीर्थो का फल प्राप्त होता है। यहाँ पर राधा-कृष्ण ने अनेकानेक चमत्कारिक लीलाएं की हैं। सभी लीलाएं यहाँ के पर्वतों, कुण्डों, वनों और यमुना तट आदि पर की गई हैं। लगभग चौरासी कोस में फैली इस भूमि पर ही कृष्ण ने कहीं यमुना किनारे अपने अनगिनत गोप सखाओं और दाऊ भैया के साथ गायें चराई थीं । यहाँ पर ही श्री कृष्ण अपनी मधुर-मधुर बंशी बजाते हुए असंख्य गौओं के साथ सर्वत्र विचरण करते थे । यहीं पर उन्होंने कहीं राक्षसों का नाश किया, कहीं यमुना के तट पर कालिया को नाथा। कहीं कुञ्जों में छुपकर जगत जननी राधा जी का श्रृंगार किया और कहीं गोपियों के संग रास रचाया था । यहीं पर कभी कन्हैया ने इन्द्र का मान भंग करने के लिए नख पर गिरिवर धारण किया था।
यहाँ के पनघट पर घट भरने के बहाने ब्रज बालाएँ अपने ह्रदयघट में कृष्ण प्रेम रस भरने के लिए नित जाती थीं । "पनघट जान दे री, पनघट जात हैं "। सखि री ! मुझे पनघट जाने दे, नहीं तो प्रियतम से मिलने का पन घट जायेगा । इस पन की रक्षा के लिए घट लिए ब्रज बालाओं की पनघट पर भीड़ लग जाती थी । इस रसीले स्थल पर प्रियतम की तिरच्छी रसीली चितवन से ब्रज-बालाएँ जब जल भरने के बहाने जल में गागर डुबोने लगती थी, उसी समय बज उठती थी रसिक शिरोमणि की रसीली बाँसुरी । फिर ये ब्रज-बालाएँ घट भरकर ले आती थीं या खाली लौटाकर ले आती थीं, भला किसे यह सुध रहती थी?
कालिन्दी के कल-कल करते हुए तटों पर मधुर निकुञ्जों में, टेढ़ी-मेढ़ी संकरी रसीली बीथियों में इन रसीली छेड़-छाड़ से, राग-तकरार से, ऐंठ-उमेठ से, मधुर चितवन से, मधुर-मधुर बोलियों से जल केलि का रसास्वादन कर रसिक शेखर ब्रजेन्द्रनन्दन उत्तरोत्तर रस में विभोर हो जाते थे । ब्रज की महिमा का भला कौन वर्णन कर सकता है ?
इसी कारण यहाँ ब्रजराज कहलाए जाने वाले सर्वेश्वर प्रभु को गोप-ग्वालों और गोपिकाओं के साथ मनोहारी अद्भुत लीलाएँ करते देखकर स्वयं ब्रह्माजी को भी शंका उत्पन्न हुई थी कि यह कैसा भगवद् अवतार बताया जा रहा है। अन्त में वे भी हार मानकर कहते हैं- 'अहो भाग्यम्! अहो भाग्यम्!! नन्दगोप ब्रजो कसाम। यन्मित्र परमानन्दं पूर्णब्रम्ह सनातनम् ।। आसामहो चरण रेणु जुषामहं स्यां। वृन्दावने किमपि लतौषधीनाम्।। '
"इंद्र स्तुति करते हैं कि 'हे भगवन् श्री बलराम और श्रीकृष्ण! आपके जो अति रमणीक स्थान हैं। उनमें हम जाने की इच्छा करते हैं पर जा नहीं सकते। (कारण, 'अहो मधुपुरी धन्या वैकुण्ठाच्च गरीयसी। विना कृष्ण प्रसादेन क्षणमेकं न तिष्ठति॥' यानी यह मधुपुरी धन्य और वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वैकुण्ठ में तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है पर यहाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता)। यदुकुल में अवतार लेने वाले, उरुगाय (यानी बहुत प्रकार से गाए जाने वाले) भगवान् कृष्ण का गोलोक नामक वह परम धाम (व्रज) निश्चित ही भू-लोक में प्रकाशित हो रहा है।"

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥१॥
श्रीमदभागवत जी के गोपी गीत में गोपियाँ कहती हैं कि, हे श्री कृष्ण जब से आपने इस ब्रजभूमि में जन्म लिया है, तब से इसका महत्तव वैकुण्ठ से भी अधिक बढ़ गया है । भगवान को ब्रज से बहुत प्रेम है । जो निष्काम बुद्धि में प्रकट होता है, उसे बैकुण्ठ कहते हैं । सूर्य के प्रकाश में अग्नि है, किन्तु वह अग्नि नहीं उत्पन्न कर सकता । अग्नि तो सूर्यमणि द्वारा उत्पन्न होती है । इसी प्रकार परमात्मा सर्वव्यापक हैं, किन्तु वह निष्काम बुद्धि से ही प्रकट होता है । बैकुण्ठ में काम नहीं है, किन्तु काम और क्रोध तो रजोगुण हैं । गीता में कहा गया है - काम एवं क्रोध एवं रजोगुण समुदभवः । वैकुण्ठ अति दिव्य सत्व प्रधान भूमि है । वहाँ जाने के बाद जीव संसार में नहीं आता । गोपी कहती हैं कि वैकुण्ठ से भी ब्रज की कक्षा ऊँचीं हो गई है । वैकुण्ठ में परमात्मा राजाधिराज हैं । यदि कोई वैकुण्ठ में जाये, तो प्रभु का चरण स्पर्श नहीं कर सकता। वहाँ उनकी चरण-सेवा लक्ष्मी करती हैं । प्रभु की चरण-पादुका सामने पड़ी होती हैं स्वर्ग में जाने वाला प्रभु का नहीं, बल्कि उनकी चरण पादुका का स्पर्श करता है । वैकुण्ठ में ऐश्वर्य है ब्रज में प्रेम है । जहाँ ऐश्वर्य होता है, वहाँ पर्दा होता है, किन्तु ब्रज में कोई पर्दा नहीं है । ग्रंथों से पता चलता है कि नारायण निद्राहीन होते हैं और लक्ष्मीजी इनकी चरण सेवा करती हैं । जब कोई जीव स्वर्ग में पहुँचता है, तब लक्ष्मीजी चरण सेवा करते हुए जोर से चरण दबाती हैं । इसके बाद ठाकुरजी अपनी आँखें थोड़ी सी खोलते हैं और पूछते हैं कि कहो क्या बात है ? उन्हें श्री लक्ष्मीजी बताती हैं कि यह जीव आपकी शरण में आया है, सुनकर परमात्मा कहते हैं कि इसे वैकुण्ठ में रखो । इतना कहकर वह पुनः आँख बंद कर सो जाते हैं । वैकुण्ठ में तो ऐश्वर्य है, जहाँ के प्रभु राजाधिराज हैं । ब्रज में श्री कृष्ण किसी के बालक हैं, तो किसी के सखा हैं । श्री कृष्ण ने ब्रज में रहकर ब्रजवासियों को जो आनन्द दिया है, वह वैकुण्ठ में भी नहीं है । क्या कोई वैकुण्ठ में नारायण से कहने की हिम्मत कर सकता है कि मेरा यह काम करो । कन्हैया ब्रज में यदि किसी के घर जाता है तो वह उनसे कहता है ," क्या मक्खन ले आऊं । यदि तुम्हें मक्खन खाना हो, तो मेरा थोड़ा सा काम करो । यह सुनकर कन्हैया कहता है कि तेरा क्या काम करना है? गोपी कहती हैं,'मेरा वह पीढ़ा (पाटला) ले आओ ।"
जहाँ प्रेम होता है वहाँ संकोच नहीं होता । यह तो शुद्ध प्रेम-लीला है । कन्हैया पीढ़ा उठाता तो है, किन्तु भारी होने के कारण उसे उठा नहीं पाता । कन्हैया अत्यंत कोमल शारीर का है । यूँ तो उसने अपनी तर्जनी ऊँगली पर गोवर्धन को उठा लिया था फिर भी उसे मक्खन का लालच है वह पीढ़ा उठाता तो है, किन्तु वह भारी होने के कारण रास्ते में उसके हाथ से छुट जाता है और उसका पीताम्बर भी खुल जाता है । वेदांत में लिखा है कि ज्ञानी पुरुष को ब्रह्म-साक्षात्कार होता है । फिर भी ज्ञानी पुरुष जब तक पंचभौतिक शारीर में होता है, तब तक माया का थोड़ा पर्दा होता ही है । उसे प्रारब्ध का कुछ भोग भोगना ही पड़ता है । माया यदि थोड़ी भी बाकि होती है, तो भी प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है । गोपियाँ निरावरण परमात्मा के दर्शन करती हैं । जहाँ अतिशय प्रेम होता है वहाँ पर्दा हट जाता है ।
पीढ़ा गिरते ही कन्हैया रोने लगता है । गोपी दोड़कर आती है और कहती है, अरे! तुझे क्या हो गया? क्या कुछ चोट लग गई? कन्हैया कहता है," चोट तो नहीं लगी, किन्तु मेरा पीताम्बर खुल गया है । गोपी लाला को पीताम्बर पहनाती है । जहाँ ऐश्वर्य होता है, वहाँ पर्दा होता है । प्रेम में पर्दा नहीं होता । कृष्ण ने गोपियों को जो आनन्द दिया वह भला वैकुण्ठ में कहाँ मिल सकता है? वैकुण्ठ में नन्द महोत्सव नहीं होता, वहाँ नारायण का जनम ही नहीं होता, नन्द महोत्सव की बात कैसे उपस्थित हो?
भगवान लक्ष्मीजी को अपने हृदय में रखते है । क्योंकि लक्ष्मी जी उन्हें अतिशय प्रिय हैं । एक कारण यह भी है कि यदि कोई जीव ईश्वर की बहुत भक्ति करता है तो उस पर कृपा दिखाने के लिए भगवान लक्ष्मी जी से कहते हैँ । लक्ष्मी जी की एक बार कृपा हो जाय तो जीव उस आश्चर्य में चकमका उठता है । जीव को मान सम्मान का मोह उठता है । थोड़ा मोह होते ही जीव ईश्वर से दूर हो जाता है । ईश्वर जीव की अच्छी तरहां परीक्षा करने के बाद ही उसे वैकुण्ठ में स्थान देते हैं । इसीलिए उन्होंने अपने हृदय में लक्ष्मी जी को स्थान दे रखा है ।
लक्ष्मी जी ने परमात्मा से कहा," आप मुझे अपने ह्रदय में रखते हैं, किन्तु मुझे तो आपके चरणों की सेवा ही करनी है ।" परमात्मा के चरणों में अलौकिक दिव्य रस है । कुछ महापुरुषों को मुक्ति की उपेक्षा भगवान के चरणों में पड़ा रहना खूब भाता है । यह दास्य भक्ति है ।
लाला को एकबार मन में यह विचार आया कि लोगों को मेरे चरणों में क्या विशेषता दिखायी देती है? वे क्यों मुक्ति को तुच्छ समझते हैं और मेरे चरणों में पड़े रहना पसंद करते हैं? मेरे चरणों में आखिर ऐसा क्या है? और इतना सोच कर वे अपना चरण उठाकर मुंह में डालते हैं । और यह ही नहीं ब्रज में आकर स्वयं अखिलेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने माखन मिश्री छोड़ के ब्रज रज को खाया है !
वैकुण्ठ तो स्तव-प्रधान भूमि है । वहाँ रज नहीं है । जहाँ रजोगुण न हो, वहाँ भला रज कहाँ मिलेगी? लक्ष्मी जी को भगवानजी के चरण रज लेने कि इच्छा है । इसलिए वे एकबार ब्रज में आती है " ब्रज प्यारा है, वैकुण्ठ न आऊं ।"
गोपी कहती हैं ," सब वैकुण्ठ में लक्ष्मी जी की सेवा करते हैं । वे ही लक्ष्मी जी ब्रज में दासी बनकर सेवा करती हैं । ब्रज के वृक्षों- पत्तों में लक्ष्मी जी का प्रवेश होता है । वैकुण्ठ से भी ब्रज श्रेष्ठ है ।

इसी ब्रज भूमि पर चरण रखते ही ब्रह्मज्ञानी उद्धव का सब ज्ञान ही लुप्त हो गया और अन्त में उन्हें भी कहना पड़ा-
ब्रज समुद्र मथुरा कमल, वृन्दावन मकरन्द।
ब्रज-बनिता सब पुष्प हैं, मधुकर गोकुल चन्द।।

भगवान को अपनी जन्मभूमि से विशेष प्रेम है और इसीलिए सब प्रकार से सुन्दर द्वारका में वास करते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण जब व्रज का स्मरण करते थे, तब उनकी कुछ विचित्र ही दशा हो जाती थी।
'ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात।
सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥'
(भावार्थ :- निर्मोही मोहन को अपने ब्रज की सुध आ गई। व्याकुल हो उठे, बाल्यकाल का एक-एक दृष्य आंखों में नाचने लगा। वह प्यारा गोकुल, वह सघन लताओं की शीतल छाया, वह मैया का स्नेह, वह बाबा का प्यार, मीठी-मीठी माखन रोटी और वह सुन्दर सुगंधित दही, वह माखन-चोरी और ग्वाल बालों के साथ वह ऊधम मचाना ! कहाँ गये वे दिन? कहाँ गई वे घड़ियाँ ? )
कहियौ, नंद कठोर भये।
हम दोउ बीरैं डारि परघरै, मानो थाती सौंपि गये॥
तनक-तनक तैं पालि बड़े किये, बहुतै सुख दिखराये।
गो चारन कों चालत हमारे पीछे कोसक धाये॥
ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाये।
बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाये॥
कौन काज यहि राजनगरि कौ, सब सुख सों सुख पाये।
सूरदास, ब्रज समाधान करु, आजु-काल्हि हम आये॥
(भावार्थ :- श्रीकृष्ण अपने परम ज्ञानी सखा उद्धव को मोहान्ध ब्रजवासियों में ज्ञान प्रचार करने के लिए भेज रहे हैं। इस पद में नन्द बाबा के प्रति संदेश भेजा है। कहते है:- “बाबा , तुम इतने कठोर हो गये हो कि हम दोनों भाइयों को पराये घर में धरोहर की भांति सौंप कर चले गए। जब हम जरा-जरा से थे, तभी से तुमने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, अनेक सुख दिए। वे बातें भूलने की नहीं। जब हम गाय चराने जाते थे, तब तुम एक कोस तक हमारे पीछे-पीछे दौड़ते चले आते थे। हम तो बाबा, सब तरह से तुम्हारे ही है। पर वसुदेव और देवकी का अनधिकार तो देखो। ये लोग नन्द-यशोदा के कृष्ण-बलराम को आज “अपने जाये पूत” कहते हैं। वह दिन कब होगा, जब हमें यशोदा मैया फिर अपनी गोद में खिलायेंगी। इस राजनगरी, मथुरा के सुख को लेकर क्या करें ! हमें तो अपने ब्रज में ही सब प्रकार का सुख था। उद्धव, तुम उन सबको अच्छी तरह से समझा-बुझा देना, और कहना कि दो-चार दिन में हम अवश्य आयेंगे।” )ये शब्द हैं ब्रज छोड़कर द्वारिका पहुँच कर द्वारिकाधीश बनने वाले श्री कृष्णजी के। ब्रज की याद करके जिनके नेत्रों में अश्रु छलक उठते थे।
ब्रज की सीमा:-

- चौरासी कोस के इस ब्रजमण्डल का आकार कहाँ से कहाँ तक है, इसे बतलाने के लिये ब्रज में कई अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं। ऐसी ही एक दोहाबद्ध अनुश्रुति का उल्लेख ब्रज के सुप्रसिद्ध शोधकर्ता श्री ग्राऊस महोदय ने स्वलिखित 'मथुरा मैमोअर' में इस प्रकार किया है :-
"इत बरहद इत सोनहद, उत सूरसेन को गाँव ।
ब्रज चौरासी कोस में, मथुरा मण्डल माँह ॥"
उक्त दोहे से स्पष्ट है कि ब्रज की सीमा एक ओर 'बर' दूसरी ओर 'सोनहद' तथा तीसरी ओर सूरसेन का गाँव 'बटेश्वर' मानी गयी है । 'बर नामक स्थान वर्तमान में अलीगढ़ जिले में है, जो
ब्रज मण्डल के पूर्वोत्तर में स्थित है । सोनहद वर्तमान हरियाणा प्रदेश के गुड़गाँव जिले में
स्थित है । इसीका प्राचीन नाम शोणितपुर था । सूरसेन का ग्राम 'बाह' तहसील का बटेश्वर
नामक गाँव है । इन्हीं स्थलियों के मध्यस्त स्थली को ब्रजमण्डल कहा गया है ।
- गर्ग संहिता में कहा गया है :-
प्रागुदीच्यां बहिर्षदो दक्षिणस्यां यदोः पुरात् ।
पश्चिमायां शोणितपुरान्माथुरं मण्डलं विदुः ॥ ( भ. सं. ख. २)
बर्हिषद (बरहद) से पूर्वोत्तर, यदुपुर (सूरसेन का गाँव बटेश्वर) से दक्षिण और शोणितपुर (सोनहद) से पश्चिम में चौरासी कोस भूमि को विद्वतजनों ने 'मथुरा मण्डल या ब्रज' कहा है ।
- ब्रह्माण्ड पुराण में भी ब्रज मण्डल की सीमा का उल्लेख देखा जाता है । उसके अनुसार ब्रज मण्डल के पूर्व में हास्यवन, दक्षिण में जह्नुवन, पश्चिम में पर्वतवन तथा उत्तर में सूर्यपत्तन वन स्थित हैं ।
चतुर्दिक्ष परमाणेन पूर्वादिक्रमतोगणत् ।
पूर्वभागे स्थितं कोणं वनं हास्याभिधानक ॥
भागे च दक्षिणे कोणं शुभं जन्हुवनं स्थितं ॥
भागे च पश्चिमे कोणे पर्वताख्यवनं स्थितं॥
भागे ह्युत्तरकोणस्यं सूर्य पतन संज्ञकं ।
इत्येता ब्रज मर्यादा चतुष्कोणाभिधायिनी ॥
इसके अनुसार पूर्व में आगरा जिले का हसनगढ़ हास्यवन के नाम से, पश्चिम में राजस्थान का काम्यवन के पास का 'बहाड़ी ग्राम' पर्वतवन के नाम से, दक्षिण में धौलपुर तहसील का जाजऊ
ग्राम 'जह्नु' के नाम से प्रसिद्ध है, उत्तर भाग में अलीगढ़ जिले के जेवर ग्राम के निकट सूर्यपत्तन
वन की स्थिति मानी गई है ।
चौरासी कोस ब्रज मण्डल में वन, उपवन, प्रतिवन और अधिवन
- पद्म पुराण:- के अनुसार यमुनाजी के पूर्व और पश्चिम में महावन, काम्यवन, मधुवन, तालवन, कुमुदवन, भाण्डीरवन, वृन्दावन, खदीरवन, लोहवन, भद्रवन, बहुलावन, और बेलवन - ये बारह मुख्य वन स्थित हैं । इनमें से मधुवन, तालवन, कुमुदवन, बहुलावन, काम्यवन, वृन्दावन, और खदीरवन- ये सात वन यमुना के पश्चिम भाग में हैं । भद्रवन, भाण्डीरवन, बेलवन, लोहवन, तथा महावन ये पाँच वन यमुना के पूर्व में स्थित हैं ।
- वराह पुराण:- में बारह उपवनों का उल्लेख है - ब्रह्मवन, अप्सरावन, विह्वालवन, कदम्बवन, स्वर्णवन, सुरभिवन, प्रेमवन, मयूरवन, मानेंगितवन, शेषशायीवन, नारदवन और परमानन्दवन ।
- भविष्य पुराण:- में बारह प्रतिवनों का उल्लेख इस प्रकार है :- रंकवन, वार्त्तावन, करहावन, कामवन, अञ्जनवन, कर्ण्वन, कृष्णाक्षिपनवन, नन्दप्रेक्षण कृष्णवन, इन्द्रवन, शिक्षावन, चन्द्रावलीवन, लोहवन ।
- विष्णु पुराण:- में बारह अधिवनों का वर्णन मिलता है :- मथुरा, राधाकुण्ड, नन्दगाँव, गढ़, ललिता ग्राम , वृषभानुपुर, गोकुल, बलभद्रवन, गोवर्द्धन, जावट, वृन्दावन और संकेत वन ।
ये कुल मिलाकर ४८ वन हैं ।
स्कन्द पुराण:- के अनुसार भगवान, श्री कृष्णजी के प्रपौत्र श्री ब्रजनाभ ने महाराज परीक्षित के सहयोग से श्री कृष्णजी की लीला स्थलियों का प्राकट्य कराया अनेकों मंदिरों, कुण्डों, बाबड़ियों आदि का निर्माण कराया। यहाँ प्रभु बल्लभाचार्य, श्री चैतन्य महाप्रभु आदि ने सम्पूर्ण ब्रज चौरासी कोस की यात्राएँ की। इसी तरहां ब्रज के गौरव का इतिहास बहुत प्राचीन है।ब्रज का माहात्म:-


ऐसो स्वाद नहीं माखन में, जो रस है ब्रज रज चखान में !!!


ब्रज की महिमा को कहै, को बरनै ब्रज धाम्।
जहाँ बसत हर साँस मैं, श्री राधे और श्याम्॥
ब्रज रज जाकूँ मिलि गयी, वाकी चाह न शेष।
ब्रज की चाहत मैं रहैं, ब्रह्माँ विष्णु महेश्॥
ब्रज के रस कूँ जो चखै, चखै न दूसर स्वाद।
ऐक बार राधे कहै, तौ रहै न कछु और याद॥
जिनके रग रग में बसैं, श्री राधे और श्याम्।
ऐसे बृजबासीन कूँ, शत शत नमन प्रणाम्॥
या ब्रज में कछु देख्यो री टोना ॥
ले मटकी सिर चली गुजरिया, आगे मिले बाबा नंदजी के छोना ।
दधि को नाम बिसरी गयो, 'लेलेहु प्यारी कोइ स्याम सलोना' ।
बृन्दाबन की कुँज गलिन में, आँख लगाय गयो मनमोहना ।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, सुन्दर स्याम सुघर सलोना ।
(मीरां)
कहाँ सुख ब्रज कौसो संसार !
कहाँ सुखद बशीबट जमुना, यह मन सदा विचार।।
कहाँ बन धाम, कहाँ राधा संग, कहाँ संग ब्रज-बाम।
कहाँ रस-रास बीच अन्तर सुख, कहाँ नारी तन ताम।।
कहाँ लता तरु-तरुप्रति, झूलन कँज-कुँज नव धाम।
कहाँ बिरह सुख गोविन संग सूर स्याम मन काम।।
(सूरदास )
कहा करौ बैकुंठहि जाय ?
जहाँ नहि नन्द जसोदा गोपी, जहाँ नहीं ग्वाल-बाल और गाय।
जहाँ न जल जमुना कौ निर्मल, और नहीं कदमनि की हाय।
'परमानन्द' प्रभुचतुर ग्वालिनी, बज-रज तजि मेरी जाइ बलाय।।
(परमानंद दास )
जो बन बसौं तो बसौ वृन्दावन, गाँव बसौं तो बसौं नन्दगाम।
नगर बसौं तो मधुपुरी, यमुना तट कीजै विस्राम।।
गिरि जो बसौं तो बसौं गोवर्धन, अद्भुत भूतल कीजै ठाम।
'कृष्णदास' प्रभु गिरिधर मेरौ, जन्म करौ इति पूरन काम।।
(कृष्णदास )
ललित ब्रज देश गिरिराज राजें।
धोष-सीमंतिनी संग गिरिवरधरन, करति नित केलि तहँ काम लाजें ।।
त्रिविधि पौन संचरें, सुखद झरना झरें, ललित सौरभ सरस मधुप गाजें।
ललित तरु फूल-फल फलित खट रितु सदा, 'चतुर्भुजदास' गिरधर समाजें।।
(चतुर्भुजदास )
प्रेम-धुजा रसरुपिनी, उपजावन सुख पुंज।
सुंदर स्याम बिलासिनी, नव वृन्दाबन कुंज।।
(नन्ददास )
मानुष हों तो वही रसखान, बसौं नित गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तौ कहा बसु मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।।
पाहन हौं तौ वही गिरि कौ जुधर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौं नित, कालिंदी-कूल कदंब की डारन।।
(रसखान )
सधन कुंज छाया सुखद् सीतल सुरभि समीर।
मन है जात अजौ वहै, उहि जमुना के तीर।।
( बिहारी लाल )
श्री ब्रज-ब्रज-रज, बज-बधु, ब्रज के जन समुदाय।
ब्रज-कानन, ब्रज-गिरिन कों बंदौ सदा सत माय।।
( गो. हरिराय )
ब्रज वृन्दाबन स्याम पियारी भूमि है। तँह फूल-फूलनि भार रह द्रुम झूमि हैं।।
नव दंपति पद अंकनि लोट लुटाइयै। ब्रज नागर नंदलाल सु निसि-दिन गाइयै।।
नंदीस्वर बरसानौ गोकुल गाँवरौ। बंसीबट संकेत रमत तँह सावरौ।।
गोवर्धन राधाकुंडसजमुना। जाइयै ब्रज नागर नंदलाल सु निसिदिन गाइयै।।
( नागरी दास )
जमुना पुलिन कंज गहवर की, कोकिल है द्रुम कूक मचा
पद-पंकज प्रिया-लाल मधुप है, मधुरे-मधुरे गूँज सुना
कूकर है ब्रज बीथिन डोलों, बचे सीथ संतन के पा
लालित किशोरी आस यही मन, बज-रस तजि हिन अनत न जा
(ललित किशोरी )
श्रीपद अंकित ब्रज मही, छबि न कही कछु जाइ।
क्यों न रमा हूँ कौ हियौ, या सुख कौ ललचाइ।।
परम प्रेम गुन रुप रस, ब्रज संपदा अपार।
जै-जै-जै श्री गोपिका, जै-जै नंद कुमार।।
(भारतेन्दुहरिशचन्द्र )
ब्रज भूमि मोहिनी मैं जानी ।
मोहिनी कुञ्ज, मोहन श्री वृन्दावन मोहन श्री जमुना पानी ॥
मोहिनी नार सकल गोकुल की, बोलति मोहिनी बानी ।
श्री भट्ट के प्रभु मोहन नागर, मोहिनी राधा रानी ॥
(श्री भट्टजी )
" ब्रज कि रज में रज मिलें और जमुना को नीर, तुलसी ते नर धन्य है जो ब्रज में तजे शरीर "

