bhajans

कोई न भावे मोहि कृष्ण बिन कोई न भावे मोय

जब ते श्याम भयौ है अपनौ,सब जग बैरी होय
मैं तौ बन गयी कृष्ण की रोगन,वैद्य मिले ना कोय
ऐसो रोग लग्यो है मोहे ,न जागूँ न सोय
भूल गयी मैं जग को खुद को,श्याम में गयी मैं खोय
'व्योम' ये रोग तबही छूटे,जब वैद्य सांवरा होय
गरुड़ गोविन्द चरण सुखदाई

नील कमल इव परम मनोहर,सुन्दर कोमलताई
भक्तन प्रीति रहत उर द्रण तौ ,भवसागर छुटि जाई
इन्हहि निरखि भव बन्ध कटत हैं,निश्चय यः मन लाई
परम उदार गरुड़ गोविन्द जू,ऐसी इनकी प्रभुताई
'व्योमकृष्ण' है सेवक प्रभु को,करत चरण सेवकाई
गरुड़ गोविन्द जू परम कृपाल

दुष्टन के संहारक ठाकुर,दीनन के दीन दयाल
नीच,कुचाल,कुमतिजन को हू,देत हैं सुन्दर काल
भक्तन की तौ कहै कौन सब,द्रष्टि सौं किये निहाल
बारह भुज को रूप अनुपम,गल वैजयंती माल
'व्योमकृष्ण' बलिहारी छवि पर,धन्य-धन्य गोपाल
सारे विश्व में निरालो, रूप रंग से है कारो प्यारो,जाके वामांग विराजे मैया लक्ष्मी जू प्यारी हैं.
आठो सीधी चारो पुरुषार्थ के प्रदाता देव, भक्तन के हित सो ये बारह भुजा धारी हैं.
दायें-बाएं चरण में रुक्मिणी और सत्यभामा, कालसर्प शत्रु श्री गरुड़ पे सवारी हैं.
जाकी सुमनोहर छवि को कौन वर्णन करे? ऐसे गरुड़ गोविन्द के हम तो पुजारी हैं...........
रे मन अब गरुड़ गोविन्द गुण गा ले.

भोग लिये भौतिक सुख जग के, सब अरमान निकाले
अभी समय है मूरख वन्दे, जी भरकर पछता ले.
भौतिक जगत जीव हैं नश्वर, सब हैं देखे भाले.
भटका रहा तू इनमें अब तक, पेरो में पड़ गए छाले.
अगणित पाप कर्मो से तुने, घट के घट भर डाले.
'व्योमकृष्ण' कहे तोड़ घटो को, पड़ न जाये कही लाले.
रे मन अब गरुड़ गोविन्द गुण गा ले.
गरुड़ गोविन्द तिहारी अनोखी कला, बारह भुजा को है रूप तिहारो.

मोर-मुकुट-मकराकृत कुंडल, भाल तिलक है सोहत प्यारो.
परम शुभ्र हैं चरण-कमल प्रिय, बार-बार यह रूप निहारो.
यह छवि केसे करे वर्णन, यह 'व्योमकृष्ण' है बहोत विचारो.
सुन्दर मुख आकृति कमल नयन, तुम मोहिनी तान सुनाते हो.
जग को अपने वश में करके, राधा संग रास रचाते हो.
मनवांछित कार्य निज भक्तन के, तुम क्षण में पूर्ण कराते हो.
तुम्हे बुला बुलाकर थका 'व्योम', फिर भी तुम क्यूँ नहीं आते हो?????????????
गोविन्द नहीं तुम आवत क्यूँ? हम कब से बाट निहारत हैं.

तुम्हे टेर-टेर हम हार चुके, दृग अश्रु बिंदु मम झारत हैं.
अब आ जाओ मम प्राण सखे, हम पलकन सो राह बुहारत हैं.
'व्योमकृष्ण' जीवन धन, यही जीवन तुम पर वारत हैं............
जीवन की संध्या आ ही गयी, पर श्याम नहीं अब तक आया.

क्या सार रह गया शेष यहाँ? मम प्रियतम नहीं मुझको पाया.
जलता रहा मैं विरह धुप में, पर नहीं मिला तेरा साया.
'व्योमकृष्ण' अब भी आ जा, तू बनकर प्रेम वृक्ष की छाया.....................
झूठा है यह जगत निगोड़ा |

रिश्ते नातों की गाडी को, चला रहा माया का घोडा ||
बैठा है तू इस गाडी में, क्यों नहीं इसको छोड़ा |
क्या छोड़ेगा इसको तू जब,बन जाएगा फोड़ा ||
कृष्ण नाम का आश्रय ले ले, अधिक नहीं तो थोडा |
'व्योमकृष्ण' जग से रिश्ता अब,हमने ही खुद छोड़ा ||

 नाथ तुम मेरी और निहारो |
दीन दयाल प्रभु तुम हो,मम दीन दशा निस्तारो ||
तुम ही अंतिम सत्य हो जग के,मायामय जग सारो |
कृपा द्रष्टि टुक हेरो मो पर,मेरो अंतर्मन कारो ||
एक ही आसरो है या जग में,श्याम मुरलिया वारो |
'व्योम' कृष्ण या भव सागर ते,हमको पार उतारो ||
बंदौ द्वारिकेश द्वै बेर,तीन ताप हारी,चारि बेर बंदौ कर चक्र के धरिया को

पांडव सखा को पांच बेर षट बेर श्याम,सात बेर बंदौ सात बैल के नथिया को
आठ पटरानी पति आठ बेर बंदौ,नौ बेर बंदौ नवनीत के चुरैया को
वंदन करत दस बेर दस रूपधारी,बेर-बेर बंदौ बाबा नन्द के कन्हैया को
एक बेर आदि ब्रह्म अच्युत अविनाशी की,द्वै बेर दानव दलैया जन रखैया की
तीन बेर बोलो जय वामन त्रिविक्रम की,चारि बेर शंख,चक्र,पद्म ,गद धरैया की
पाँचें पुरुषोत्तम,छठें क्षिति भक्ष सातें श्याम,आठें अवधेश,नौवें नन्द के कन्हैया की
दश बेर दश रूप धारी श्री बिहारी जू की,बेर-बेर बोलो जय बांसुरी बजैया की

धर्म सदग्रंथ डूब जाते नशि जाते भक्त,जो ये जग जन्म नहिं होतो हरी प्यारे को
रस की फुलवारी गिरिधारी बिना सूख जाती,ऊक़ जाती यमुना न गहती किनारे को
श्याम सुखधाम ने द्रडाय कें पड़ायो प्रेम,रसमय बनायो ब्रज मेटी तम खरे को
तिहारो कहा चोर्यो ब्रजरानी क्यों अनीत कथों,चोर नाम धारयो तीन लोक रखवारे को
कठिन कराल कलिकाल की चडाई शीश,तेरौ नहिं कोई देख-देख रे तू पलक खोल
दारा परदारा परिवार हित पाप करे,हीरा सौ जनम गयौ विषयन में डोल डोल
व्योम द्विज हरी सौं हितू नहिं तीनौ लोक,बिन मांगे नाम,कुल,नर तन दियो अमोल
जगत असर अंधियार निराधार माँहि,एरे मन प्रेम से तू हरी बोल हरी बोल
मांटी की मडैया में महल बन्यौ माया कौ,कई दिन रहैगौ यः अंत डाही जायेगौ
जाएगी न संग सूर साहिबी सजन बंधू,तरुवर की छांह विभव थिर न थिरायेगौ
बडेगौ बुड़ापौ ज्यों,वर्षा की घास,स्वांस रुकि-रुकि कें आवै तब व्यंजन को खावैगौ
माया लै डूबे तोहि तृष्णा नदी में व्योम,माला बिनु मूड तोहि पार को लगावैगौ
 कानन कुंडल मोर पखा सिर,वैजयंती माल गले में सोहै
बारह भुज कौ रूप अनूपम,भक्त जनन के मन को मोहै
परम मनोहर छवि दरश कर,हर कोई पूछै ये सांवरो को है
जो कोई जाने सो देहे बताय,या गरुड़ गोविन्द सौ रावरो को है
जब ते छवि तेरी निहारि लई,तब ते चित है कछु ऐसी बसाई
तेरे बारह भुजा के स्वरूप की छवि,मेरे मन मंदिर में गयी है समाई
खोयौ रहूँ तेरे ध्यान निरंतर,मोहि और न आवत कछु है सुहाई
अब तेरौ ही है सब भाँति ये 'व्योम',तू चाहे मिटा या चाहे बनाई
तेरी कृपा की कहै कौन प्यारे,मेरा कुछ नहीं सब तेरा ही दिया है

ये तन भी है तेरा ये मन भी है तेरा,तेरा ही दिया मैंने जीवन जिया है
तुझमें है भक्ति ये तेरी कृपा है,कहूं क्या मैंने तुझसे क्या-क्या लिया है
जो दिया भी है गर मैंने तुमको हे गोविन्द!,तो तेरा ही दिया मैंने तुझको दिया है

करता रहूँ तेरी भक्ति सदा,और तेरी ही प्रसादी मैं पाता रहूँ
गर चाहत भी हो किसी से जो मेरी,तो दिल से तुम्हीं को में चाहता रहूँ
जो आँखें भी बंद करूँ गर मैं प्यारे,तो चित में तेरी छवि ही लाता रहूँ
एक इतनी ही अर्ज़ है 'व्योम' की गोविन्द!,बस तेरी ही लीला को गाता रहूँ
जगत में कोई नहीं है अपना
सभी लोग यहाँ स्वारथ के हैं,इनमें तू मत फंसना
श्रेष्ठ जन्म लेकर तू जग में,वृथा न यूँ ही मरना
'व्योम' कृष्ण का आश्रय लेकर,जन्म सफल तू करना
कृष्ण नाम है रस भरा,मतवाला हो पी
कृष्ण सुगन्धित फूल पार भंवरा बनकर जी
भंवरा बनकर जी छोडि जग हेरा फेरी
दुनिया नहीं है मीत बावरे भूल है तेरी
ये नाम मनोहर हरी का प्यारे
तू बोल सदा श्री कृष्ण.....................
अब क्यूँ आते हो बार बार?
क्या मेरा तुम्हारा  नाता है ?
रोता रहूँ याद तुम्हारी में, क्या ये ही तुमको भाता है ?
जब याद किया तब आया नहीं, अब आकर हमें जलाता है
"व्योम" कृष्ण ! इस भाँती हमें तू, हर पल क्यूँ तरसता है ?
गरुड़ गोविन्द सौं मन अनुराग्यौ
अब तक भटकत रह्यौ है जग में,भौतिक रस है चाख्यौ
काम,क्रोध,मद.लोभ,मोह में,धान कुधान है भाख्यौ
प्रभु के सांवरे रूप दरश ते,उर अज्ञान है भाग्यौ
जीव जन्म जग नश्वर हैं सब,अब यः मन है राख्यौ
'व्योमकृष्ण' कौ चित्त सबहीं विधि,गरुड़ गोविन्द सौं लाग्यौ
गरुड़ गोविन्द सौं प्रीति लगायी
अब तक तौ मैं भवसागर में भटकत ही चली आई
जा दिन ते मन बस्यौ सांवरो,जग सौं प्रीति छुड़ाई
क्षणभंगुर है अखिल स्रष्टि तौ,यह द्रण उर करि लायी
भजहूँ एक ही नाम निरंतर,निशि वासर हरी राई
'व्योमकृष्ण' कहै हे गोविन्द!,मोहि भव सौं पार लगायी
हमारे मन गरुड़ गोविन्द ही भावें
सुर-नर-मुनि-गन्धर्व आदि गण,इनकी लीला गावें
सुन्दर लोल-कपोल औ चितवन,चंचल चित्त चुरावें
परम अलौकिक छवि लागत है,जब गरुड़ पार धावें
कालसर्प दुष्टन के विनाशक,भक्तन के पाप नसावें
'व्योम' सदा ही भक्त गोविन्द के,मनवांछित फल पावें

कृष्ण कृष्ण श्री कृष्ण कृष्ण,तू कृष्ण कृष्ण ही कहना
कृष्ण प्रेम की अग्नि में तू,निशि दिन तपता रहना
भौतिक भोग जहर त्यागकर,कृष्णामृत ही चखना
श्री कृष्ण मिलेंगे तुझे 'व्योम',तू निश्चय यः मन रखना

वृन्दावन धाम की महिमा महा, जहां वास करें श्री कृष्ण मुरारी
सुर--नर-मुनि-गन्धर्व-देव गण, आइ यहाँ नित झारें बुहारी
अपने वश में ब्रजराज किये, यहाँ नित्य विहारत भानु  दुलारी
'व्योम' कृष्ण चरनन की रज धरि, छोड़ दई जग की रज सारी